ओशो के जन्मदिन पर उनके 11 स्वर्णिम सूत्र
ओशो की वाणी में से कुछ बहुमूल्य चुनना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल भी। उनकी वाणी के अथाह सागर में से कुछ भी कहीं से भी ले लें, हर वाक्य ग्रंथ की तरह है।शशिकांत 'सदैव' बता रहे हैं, उनके 11 स्वर्णिम सूत्र, जिनको अपनाकर आप भी अपने व्यावहारिक जीवन को सफल बना सकते हैं:
अभी और यहीं
मनुष्य या तो अपने बीते हुए पलों में खोया रहता है या फिर अपने भविष्य की चिंताओं में डूबा रहता है। दोनों सूरतों में वह दुखी रहता है। ओशो कहते हैं कि वास्तविक जीवन वर्तमान में है। उसका संबंध किसी बीते हुए या आने वाले कल से नहीं है। जो वर्तमान में जीता है वही हमेशा खुश रहता है।
भागो नहीं, जागो
अभी और यहीं
मनुष्य या तो अपने बीते हुए पलों में खोया रहता है या फिर अपने भविष्य की चिंताओं में डूबा रहता है। दोनों सूरतों में वह दुखी रहता है। ओशो कहते हैं कि वास्तविक जीवन वर्तमान में है। उसका संबंध किसी बीते हुए या आने वाले कल से नहीं है। जो वर्तमान में जीता है वही हमेशा खुश रहता है।
भागो नहीं, जागो
हम हमेशा अपने दुखों और जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं, उनसे बचने के बहाने खोजते रहते हैं। अपनी गलतियों और कमियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं, लेकिन ऐसा करके भी हम खुश नहीं रह पाते। ओशो कहते हैं कि परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए।
मैं नहीं, साक्षी भाव
मनुष्य के दुख का एक कारण यह भी है कि वह किसी भी चीज को, फिर वह इंसान हो या परिस्थिति, ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारता। वह उसमें अपनी सोच अवश्य जोड़ देता है, जिसके कारण वह उसका हिस्सा बनने से चूक जाता है और दुखी हो जाता है। ओशो कहते हैं कि जो हो रहा है, उसे होने देना चाहिए, कोई अवरोध नहीं बनना चाहिए।
दमन, नहीं सृजन
मनुष्य सदा तनाव में रहता है। कभी ईर्ष्या से तो कभी क्रोध से भरा ही रहता है। उसमें भटकने और आक्रामक होने की संभावना हमेशा छुपी रहती है। वह चाहकर भी आनंदित और सुखी नहीं रह पाता। ओशो कहते हैं कि मनुष्य एक ऊर्जा है। हम यदि उस ऊर्जा को दबाएंगे तो वह कहीं न कहीं किसी और विराट रूप में प्रकट होगी ही।
शिकायत नहीं, धन्यवाद
ऐसा कौन है, जिसका मन शिकायतों से नहीं भरा! घर हो या दफ्तर, भगवान हो या संबंध, हम हमेशा सबसे शिकायत ही करते हैं। हमारी नजर हमेशा इस बात पर होती है कि हमें हमारे अनुसार क्या नहीं मिला। ओशो कहते हैं कि हमारी नजर सदा उस पर होनी चाहिए जो हमको मिला है।
ध्यान एकमात्र समाधान
अपनी इच्छाओं के पूरा होने के लिए लोग हमेशा से प्रार्थना, पूजा व कर्मकांड आदि को प्राथमिकता देते रहे हैं। ध्यान तो लोगों के लिए एक नीरस या उदास कर देने वाला काम है, तभी तो लोग पूछते हैं कि ध्यान करने से होगा क्या? ओशो ने ध्यान को जीवन में सबसे जरूरी बताया,यहां तक कि ध्यान को जीवन का आधार भी माना।
दूसरे को नहीं, खुद को बदलें
देखा जाए तो परोक्ष रूप से मनुष्य के तमाम दुखों और तकलीफों का आधार यह सोच रही है कि मेरे दुख का कारण सामने वाला है। हम परिस्थितियों या किस्मत के साथ भी यही रवैया रखते हैं कि वह बदलें हम नहीं।
अतिक्रमण नहीं, संतुलन
अति हर चीज की बुरी होती है। यह बात जानते हुए भी मनुष्य हर चीज की अति सुख को पाने या बनाए रखने के लिए करता है। ओशो कहते हैं सुख की चाह ही दुख की जड़ है। सुख अपने साथ दुख भी लाता है। ओशो कहते हैं न पाने का सुख हो, न खोने का दुख, यही अवस्था संन्यास की अवस्था है।
धर्म नहीं, धार्मिकता
मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई। धर्म के नाम पर आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं। नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में। वह कहते हैं, आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं उसका कोई धर्म नहीं।
सहें नहीं, स्वीकारें
बचपन से ही हमें सहना सिखाया जाता है। सहने को एक अच्छा गुण कहा जाता है। बरसों से यही दोहराया जाता रहा है कि यदि हर कोई सहनशील हो जाए तो न केवल व्यक्तिगत तौर पर बल्कि वैश्विक तौर पर धरती पर शांति हो सकती है, लेकिन आज परिणाम सामने है। ओशो बोध के पक्ष में हैं।
जीवन ही है प्रभु
ओशो कहते हैं कि आदमी बहुत अजीब है, वह इंसान की बनाई चीजों को तो मानता व पूजता है लेकिन स्वयं को, ईश्वर की बनाई सृष्टि और उसमें मौजूद प्रकृति की तरफ कभी भी आंख उठाकर नहीं देखता। सच यह है कि परमात्मा को मानने का मतलब ही हर चीज के लिए 'हां', पूर्ण स्वीकार भाव और यह जन्म जीवन उसका जीता-जागता सबूत है।
मैं नहीं, साक्षी भाव
मनुष्य के दुख का एक कारण यह भी है कि वह किसी भी चीज को, फिर वह इंसान हो या परिस्थिति, ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारता। वह उसमें अपनी सोच अवश्य जोड़ देता है, जिसके कारण वह उसका हिस्सा बनने से चूक जाता है और दुखी हो जाता है। ओशो कहते हैं कि जो हो रहा है, उसे होने देना चाहिए, कोई अवरोध नहीं बनना चाहिए।
दमन, नहीं सृजन
मनुष्य सदा तनाव में रहता है। कभी ईर्ष्या से तो कभी क्रोध से भरा ही रहता है। उसमें भटकने और आक्रामक होने की संभावना हमेशा छुपी रहती है। वह चाहकर भी आनंदित और सुखी नहीं रह पाता। ओशो कहते हैं कि मनुष्य एक ऊर्जा है। हम यदि उस ऊर्जा को दबाएंगे तो वह कहीं न कहीं किसी और विराट रूप में प्रकट होगी ही।
शिकायत नहीं, धन्यवाद
ऐसा कौन है, जिसका मन शिकायतों से नहीं भरा! घर हो या दफ्तर, भगवान हो या संबंध, हम हमेशा सबसे शिकायत ही करते हैं। हमारी नजर हमेशा इस बात पर होती है कि हमें हमारे अनुसार क्या नहीं मिला। ओशो कहते हैं कि हमारी नजर सदा उस पर होनी चाहिए जो हमको मिला है।
ध्यान एकमात्र समाधान
अपनी इच्छाओं के पूरा होने के लिए लोग हमेशा से प्रार्थना, पूजा व कर्मकांड आदि को प्राथमिकता देते रहे हैं। ध्यान तो लोगों के लिए एक नीरस या उदास कर देने वाला काम है, तभी तो लोग पूछते हैं कि ध्यान करने से होगा क्या? ओशो ने ध्यान को जीवन में सबसे जरूरी बताया,यहां तक कि ध्यान को जीवन का आधार भी माना।
दूसरे को नहीं, खुद को बदलें
देखा जाए तो परोक्ष रूप से मनुष्य के तमाम दुखों और तकलीफों का आधार यह सोच रही है कि मेरे दुख का कारण सामने वाला है। हम परिस्थितियों या किस्मत के साथ भी यही रवैया रखते हैं कि वह बदलें हम नहीं।
अतिक्रमण नहीं, संतुलन
अति हर चीज की बुरी होती है। यह बात जानते हुए भी मनुष्य हर चीज की अति सुख को पाने या बनाए रखने के लिए करता है। ओशो कहते हैं सुख की चाह ही दुख की जड़ है। सुख अपने साथ दुख भी लाता है। ओशो कहते हैं न पाने का सुख हो, न खोने का दुख, यही अवस्था संन्यास की अवस्था है।
धर्म नहीं, धार्मिकता
मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई। धर्म के नाम पर आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं। नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में। वह कहते हैं, आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं उसका कोई धर्म नहीं।
सहें नहीं, स्वीकारें
बचपन से ही हमें सहना सिखाया जाता है। सहने को एक अच्छा गुण कहा जाता है। बरसों से यही दोहराया जाता रहा है कि यदि हर कोई सहनशील हो जाए तो न केवल व्यक्तिगत तौर पर बल्कि वैश्विक तौर पर धरती पर शांति हो सकती है, लेकिन आज परिणाम सामने है। ओशो बोध के पक्ष में हैं।
जीवन ही है प्रभु
ओशो कहते हैं कि आदमी बहुत अजीब है, वह इंसान की बनाई चीजों को तो मानता व पूजता है लेकिन स्वयं को, ईश्वर की बनाई सृष्टि और उसमें मौजूद प्रकृति की तरफ कभी भी आंख उठाकर नहीं देखता। सच यह है कि परमात्मा को मानने का मतलब ही हर चीज के लिए 'हां', पूर्ण स्वीकार भाव और यह जन्म जीवन उसका जीता-जागता सबूत है।